जिस समय शीतयुद्ध शुरू हुआ उस समय भारत परतंत्र था, लेकिन जब 15 अगस्त, 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ तब उसने बड़ी सोच-समझ के साथ भारतीय हितों को ध्यान में रखते हुए अपनी विदेश नीति का निर्धारण किया। गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने के कारण वह सोवियत संघ या अमेरिका के गुट में शामिल तो नहीं हुआ लेकिन उसने सदैव सोवियत संघ व अमेरिका के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने की कोशिश की।

भारत-सोवियत संघ संबंध

सोवियत संघ के साथ भारत के संबंध सदैव ही मधुर रहे हैं। नेहरू जी का रुझान हमेशा ही सोवियत संघ के प्रति रहा था। स्टालिन के काल में संबंध कुछ विशेष नहीं रहे और आजादी के बाद नेहरू जी ने गुटनिरपेक्ष नीति को अपनाया। उसके बाद संबंधों में कुछ दूरी आ गई लेकिन जब पी.एस.मेनन सोवियत संघ में राजदूत बनकर गए तो उसके बाद उनके संबंधों में सुधार होना शुरू हे गया।

खुश्चेव काल (1954-64) में भारत-सोवियत संबंधों में घनिष्ठता बढ़ती गई। लेकिन जब 1956 में हंगरी में सोवियत संघ के हस्तक्षेप का भारत ने समर्थन नहीं किया तो संबंधों की घनिष्ठता कम हो गई। सोवियत-चीन विवाद ने भारत-सोवियत संबंधों को मजबूती दी। क्योंकि 1962 में चीन भारत पर आक्रमण कर चुका था।

बांग्लादेश संकट के समय सोवियत संघ और भारत के बीच मैत्री संधि हुई। सोवियत संघ ने उसे राजनयिक व सैनिक सहायता दी। इसके बाद 1971 से 1975 तक संबंधों में घनिष्ठता आती गयी। 1977 में मोरारजी देसाई के काल में भी संबंध वैसे ही बने रहे।

सोवियत संध ने सैनिक सहायता प्रदान की और प्रौद्योगिकी भी उपलब्ध कराई। सोवियत संघ से ही भारत को मिग-16, मिग-32, हैलीकॉप्टर और, एन-12 व ए-एन 32 मालवाहक जहाज प्राप्त हुए थे। 1979 में सोवियत संघ को अफगानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप करना पड़ा उस समय भारत ने उसे पूर्ण मदद प्रदान की। सोवियत संघ में भी कई बार भारत महोत्सव का आयोजन किया गया।’ 1990 तक सोवियत संघ का विघटन होता गया और भारत-सोवियत संबंध भारत-रूस संबंधों में परिणत हो गया। वर्ष 2010 में प्रधानमंत्री पुतिन तथा राष्ट्रपति मेटवदेव दोनों की भारत यात्रा ने भारत-रूस के द्विपक्षीय संबंधों में मज़बूती लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

भारत-अमेरिका का संबंध

प्रारम्भ से ही भारत-अमेरिका संबंधों में एक खिचाव सा बना हुआ था। अमेरिका ही वह देश था जिसने ब्रिटेन पर दबाव बनाया कि वह भारत को मुक्त कर दे। लेकिन स्वतंत्रता के पश्चात भारत ने किसी भी खेमे में शामिल न होकर गुटनिरपेक्ष रहने का निश्चय किया। यह बात अमेरिका को नागवार गुजरी इस कारण उसने भारत विरोधी पाकिस्तान को आर्थिक व सैनिक मदद प्रदान की। 1957 में नेहरू जी की अमेरिका यात्रा से संबंधों में सुधार हुआ। 1965 में भारत-पाक युद्ध में जब अमेरिका ने पाकिस्तान का साथ दिया ते संबंध पुनः बिगड़ गए।

1977 में जनता पार्टी के काल में अमेरिका ने तारापुर परमाणु केंद्र के लिए युरेनियम सप्लाई करने की जो संधि की थी उसका पालन नहीं किया। भारत ने भी राष्ट्रपति जिमी कार्टर को “परमाणु अप्रसार संधि” पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया।

अमेरिका द्वारा पाक को निरंतर हथियार प्रदान करने के कार्य ने इंदिरा गाँधी के काल में संबंधों को मधुर नहीं बनने दिया लेकिन 1984 में राजीव गाँधी के काल में संबंधों में सुधार आया। बिल क्लिंटन के काल में भारत-अमेरिका संबंधों में मघुरता आई। जार्ज बुश के काल में जब वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमला हुआ तब अमेरिका ने भारत के दर्द को समझा और दोनों देशों में आतंकवाद को लेकर वैचारिक एकता कायम हुई और संबंधों में भी सुधार आया। नवम्बर 2010 में अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की भारत यात्रा से भारत-अमेरिका दीर्घावधि सामरिक संबंधों के ढांचे में मज़बूती आई है।

भारत की विदेश नीति का भारत के हितों पर प्रभाव

गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेता के रूप में भारत ने शीतयुद्ध के दौर में दो स्तरों पर अपनी भूमिका निभाई। एक तरफ तो भारत ने अपने को खेमेबंदी से अलग रखा दूसरी तरफ नक-स्वतंत्र देशों के खेमों में जाने का विरोध किया। भारत ने दोनों गुटों के बीच मतभेद दूर करने की कोशिश की तथा विश्व शांति के प्रयास किए। साथ ही नव स्वतंत्र राष्ट्रों को भी सहयोग प्रदान किया।

गुटनिरपेक्षता की नीति ने दो तरह से भारत का हित साधन किया।

  1. गुटनिरपेक्षता के कारण भारत ऐसे अंतर्राष्ट्रीय फैसले और पक्ष ले सका जिससे उसका हित सघता हो न कि महाशक्तियों और उनके खेमे के देशों का।
  2. भारत हमेशा इस स्थिति में रहा कि एक महाशक्ति उसके खिलाफ जाए तो वह दूसरी महाशक्ति के करीब आने की कोशिश करे। अगर भारत को महसूस हो कि महाशक्तियों में से कोई उसकी अनदेखी कर रहा है या अनुचित दबाव डाल रहा है तो वह दूसरी महाशक्ति की तरफ अपना रुख कर सकता था। दोनों गुटों में से कोई भी भारत को लेकर न तो बेफ्रिक हो सकता था न ही धोंस जमा सकता था।